Wednesday, May 27, 2015

वह मेला और आज का दिन

वैसे तो हम सब बच्चे क्लास में काफी शोर मचाते थे पर उस एक पीरियड में नहीं। हमेशा ऐसा हो ज़रूरी नहीं था पर अधिकतर ऐसा ही होता था। हम अचानक अच्छे बच्चे बन जाते थे जब सुतीक्ष्ण सर क्लास में आते थे। नहीं, वे मारते-पीटते नहीं थे हम लोगों को, हाँ बीच बीच में घर का  काम न आने पर डांटते ज़रूर थे। जब सर पढ़ाते तो हम सभी ध्यान से सुनते और कैसे न सुनते? हमारे पास उन्हें सुनने के सिवा और कोई उपाय नहीं था| हमारे कान अपने आप उनके मूँह से निकले शब्दों को सुनने में लीन हो जाते और धीरे-धीरे उनके शब्दों, उनकी आवाज़ को छोड़ कर किसी को और कुछ सुनाई नहीं पडता था| सुतीक्ष्ण सर ना तो बहुत ज़ोर से बोलते थे और ना ही बहुत धीमे, उनकी आवाज़ इतनी होती थी की उस सरकारी स्कूल की छठी क्लास की '' सेक्शन के हम पचासों को व
ह सुनाई देती थी| वे धीरज से हमें पुस्तक के पन्नों में से कुछ पढ़ कर सुनाते, उसे अपने शब्दों में दोहराते और आवश्यकता पड़ने पर थोड़ा नाटकीय अंदाज़ भी अपनाते थे|
आज भी उन्हीं दिनों में से एक दिन था और जैसे ही सर क्लास में आए और एक दृष्टि में हम सभी को देखने के बाद उन बच्चों के बारे में पूछा जो अनुपस्थित थे तो जिस किसी को जो मालूम था, उसने बताया| ५-१० मिनट के बाद उन्होंने पुस्तक खोल कर उसका एक पन्ना पढ़ा| हम सब यह समझने की कोशिश में जुटे थे कि आज सर क्या पढ़ाएँगे, उनकी आवाज़ से सब बच्चे चुप हो गये| उन्होंने हमारी तरफ़ देखा और कुछ पढ़ना शुरू किया|
हर दिन की ही तरह उस दिन भी हम उनके मूँह से निकले शब्दों से हमारे दिमाग़ में उभर रहे काल्पनिक चित्रों में खोते जा रहे थे| चित्रों से धीरे-धीरे दृश्य उभरने लगे और पहले दो पन्नों को जब तक सुतीक्ष्ण सर ने समाप्त किया होगा, तब तक हम सब बच्चे 'हमीद' और उसकी 'दादी', उसके मित्रों, मेले में बिकने वाले खिलोनों, वहाँ के वातावरण में गूँजती आवाज़ों और ईद की नमाज़ पढ़ने के बाद घर लौट रहे लोगों की खुशी भरी दुनिया में पहुँच चुके थे| सब कुछ हमारी आँखों के सामने ही तो घट रहा था और हम सभी यह बात जानने को उत्सुक थे कि आख़िर 'दादी' क्या कहेंगी अपने पोते के हाथों में एक चिमटा देख कर| ईदगाह का वह मेला तो एक दिन लग कर समाप्त हो गया था परंतु हम में से न जाने कितने सहपाठियों के हृदय में उस मेले की चहल पहल, आवाज़ें, वह वातावरण और उस छोटे से बालक का अपनी दादी से असीम स्नेह आज भी धड़कन बन कर साँस ले रहा है| कुछ ऐसी होती थी सुतीक्ष्ण सर की क्लास और कुछ ऐसा होता है अपनी भाषा का प्रभाव| आशा करता हूँ कि मैं भी कभी सुतीक्ष्ण बन पाऊँगा|