हम सभी जानते हैं कि होली का सीधा संपर्क श्री कृष्ण और गोपिकाओं से है, हिरण्यकश्यपु, भक्त प्रह्लाद और होलिका दहन से है परन्तु इससे भी गहरा सम्बन्ध है शीत ऋतु के समापन और बसंत ऋतु के रंगों से है। यह ऐसा मौसम है जब प्रकृति हर प्रकार के रंगों से सजने की तैयारी में है तो भला मनुष्य कैसे बच पाता इससे? प्रकृति के इन्ही रंगों से हमारे मन प्राण रंग जाते हैं, मनुष्य नए उल्लास से जीवन के संघर्षों से लड़ने जुट जाता है और इसी उल्लास का जो हमारे भीतर से किसी ज्वार की तरह उठता है, होली नाम है।
रंग मन में स्नेह, प्रेम, अनुराग और भक्ति का भाव लाते हैं और हर प्रकार की असमानता का ख़तमा करते हैं। मन से उमड़ते बासंती रंगों की वर्षा में कोई छोटा-बड़ा, ऊँचा-नीचा नहीं रह पाता और यह मानव मन के सजह भाव से बहुत ही समीप से जुड़ा हुआ है, शायद इसी लिए रंगमयी, प्रेममयी यह भाव धार्मिक बंधनों को भी नकार देता है। मनुष्य का सहज स्वभाव है प्रसन्नचित रहना और होली इसी भाव की सीधी, स्पष्ट अभिव्यक्ति है।
इस परिपेक्ष में सोचें तो यह कोई आश्चर्य नहीं लगता कि श्री कृष्ण और गोपिकाओं के अपरिभाष्य प्रेम की व्याख्या है होली; श्री चैतन्य महाप्रभु की भक्ति की वाहिनी का उद्गम है दोल जात्रा या होली; श्रीमंत शंकर देव और माधव देव के कीर्तनमुखी भागवत प्रेम का मुख्य त्यौहार है देउल या होली; पुरिया संस्कृति के उल्लास का भाव है फाकुआ या होली, पंजाब के गबरू जवानों की वीर रस से भीगी समर्पण की उन्मुक्त आवाज़ है होला मोहल्ला या होली; उत्तरप्रदेश और पश्चिमी प्रान्तों के कृष्ण भाव से अभिभोर जन मानस की सामुहिक पुकार है होरी और होली!
ईसा पूर्व के ग्रन्थ जैमिनी के पूर्वमीमांसा सूत्र में उल्लेख मिलता है होली का, संस्कृत के सातवीं शताब्दी के नाटक 'रत्नावली' में भी उल्लेखित है होली में रंगों और पानी से खेलना परन्तु आज के इस रूप में शायद होली बंगाल के गौड़ीय वैष्णव परंपरा से प्रारम्भ हुई है। जो भी हो, आज जब होली है तो क्यों न तन को अबीर और गुलाल से रंगा जाए जिससे मन-प्राण कृष्ण-गोपी भाव से ओतप्रोत हो प्रकृतिमयी आनन्द में डूब जाये? आईये होली खेलें!
राजेश